रविवार, 27 दिसंबर 2009

आज हिंदी ब्लॉग जगत पर एक बेहद स्वस्थ्य एवं सार्थक बहस पढने को मिली ...

आज जब मैं हिंदी चिट्ठों की दुनिया में विचरण कर रहा था | तब अचानक संगीता पुरी जी के चिट्ठे पर पहुंचा | वहाँ मुझे एक बढ़िया पोस्ट तो पढने को मिली ही , साथ लवली कुमारी जी और संगीता जी के बीच धर्म और विज्ञान पर एक स्वथ्य एवं सार्थक बहस पढने को मिली | ऎसी बहस ब्लॉग में मौजूद टिप्पणी कि सुविधा को और भी सार्थक बना देता है | वास्तव मर टिप्पणियों के जरिये ऐसी ही सार्थक बहस की जरूरत है | अगर आप ये बहस पढने से चूक गए है , तो लीजिए यहाँ प्रस्तुत है : 

 

लवली कुमारी / Lovely kumari ने कहा:

संगीता जी
आप कुछ बातों से सहमत होते हुए ..कुछ से असहमत होने की सुविधा चाहूंगी .
धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है इसे संप्रदाय के अर्थ में लेना कुछ ठीक नही लगता. आपने ठीक कहा की विदेशी आक्रमणों के कारन भारतीय पुरातन ज्ञान -विज्ञान को बहुत हानि पहुंची है.
जिस विज्ञान की बात आप कर रही हैं वह वस्तुतः समाज के सम्पन्न वर्ग द्वारा फैलाया गया आधे - अधूरे ज्ञान का मायाजाल है. वास्तविक विज्ञान को इस डर से लोगों के सामने आने नही दिया जाता की कहीं वे प्रगति का मार्ग दिखा कर लोगों को दुःख तकलीफों से मुक्त न कर दे. वास्तविक विज्ञान वह है जिसके आधार पर हम कारण और परिणाम में स्पस्ट सम्बन्ध बैठा सकें. इस मायाजाल रूपी अधकचरे ज्ञान से उस वर्ग को लाभ पहुंचेगा जिस के पास सुविधाओं की कोई कमी नही है. रही बात प्रकृति और ईश्वर की वह कोई ऐसा विषय नही जिसे किसी ११-२०० शब्द की टिप्पणी में निपटाया जा सके..उसपर लिख ही रही हूँ ..आगे भी लिखती रहूंगी.
रही बात परंपरा की तब सती प्रथा, मानव वध(बलि) और बहुपत्नी प्रथा भी परम्पराएँ थी ..पर वह कितनी सही थी आप भी जानती हैं. हर बार ज्ञान नई दृष्टि, नए रूप में सामने आता है उसे पुराणी व्याख्याओं से आगे बढ़ा कर देखा जाता है , न की अस्वीकार करके ऐसे हम अपना ही नुकसान करते हैं..खैर ..

अच्छा लगता है जब आप जैसे मित्र पूर्वाग्रह छोड़ कर चर्चा के लिए तैयार होते हैं. कोई बात बुरी लगी हो तब क्षमा कीजिएगा. आपकी सहृदयता के कारण स्पस्ट कहने का मन हुआ.

संगीता पुरी जी ने कहा:

लवली जी .. बहुत अच्‍छा लगा कि आप मेरे ब्‍लॉग पर आकर इतनी लंबी टिप्‍पणी लिख गयीं .. यही मैं चाहती हूं कि ब्‍लॉगिंग की दुनिया में हमेशा स्‍वस्‍थ बहस हो .. पर आपका ये भ्रम है किवास्तविक विज्ञान को इस डर से लोगों के सामने आने नही दिया जाता की कहीं वे प्रगति का मार्ग दिखा कर लोगों को दुःख तकलीफों से मुक्त न कर दे.दुनिया में हर वक्‍त बल, बुद्धि और व्‍यवासायिक ज्ञान में से कुछ भी न रखने वाले लोग होते हैं .. जिनके पालन पोषण के लिए उन्‍हे सहारा देने की आवश्‍यकता होती है .. वे खुद रास्‍ता नहीं बना सकते .. पर दिखाए रास्‍ते पर तल्‍लीनता से चल सकते हें .. आज की दुनिया में भी ऐसे व्‍यक्ति हैं .. पर उनमें से जो धन संपन्‍न हैं उनकी स्थिति ठीक है .. कोई ट्रेनिंग ले सकते हैं वे .. बाकी के कष्‍ट की सीमा नहीं .. उनके लिए आज के विज्ञान ने कोई व्‍यवस्‍था नहीं की है आज का विज्ञान 'survival of the fittest' को मानता है .. एक अंधी दौड लगाए जा रहे हैं लोग .. जो मजबूत है वो आगे बढेगा वो जितेगा जबकि जो कमजोर है ,गिरकर मर जाए .. पर धर्म ऐसा नहीं कहता .. वह हर स्‍तर के लोगों की खूबियों से फायदा उठाकर पृथ्‍वी के समस्‍त चल और अचल के कल्‍याण की बात करता है .. समाज के विभिन्‍न समुदायों को अलग अलग प्रकार के विज्ञान की जानकारी नहीं दी गयी थी .. तो बिना गणित और विज्ञान के लोहार , सुनार , पीत्‍तल का काम करने वाले , कपास के धागे निकालनेवाले , रेशम के डोर निकालनेवाले , शराब बनाने वाले, जूत्‍ते बनाने वाले या अन्‍य इतने तरह के कलाकार ने जिन जिन विधियों से अपनी अपनी कला का प्रदर्शन किया .. उसमें विज्ञान नहीं था क्‍या .. यदि आप मानती है कि आज ही सिविल इंजीनियर हैं .. तो आपकी गलतफहमी है .. इतिहास गवाह है कि प्राचीन काल में जो भी बडे बडे इमारत , मंदिर , मस्जिद और पुल बने .. वे कलाकारों के ही दिमाग की ऊपज हैं .. परेशानी तब शुरू हुई जब उच्‍च वर्ग ने इन कलाओं को महत्‍व देना कम कर दिया .. और चूंकि उच्‍च वर्ग के हिस्‍से में अनाज थे .. इसलिए कलाकारों को शोषण का शिकार बनना पडा .. कम मजदूरी देकर उनसे काम करवाए जाते रहे .. जिन्‍हे कालांतर में शूद्र कहा जाने लगा .. उन्‍हें मैं प्राचीन भारत का बडा कलाकार मानती हूं !!
सती प्रथा, मानव वध(बलि) और बहुपत्नी प्रथा तब आयी समाज में जब धर्म के नाम पर ताकतवर ने कमजोरो का शोषण करना शुरू कर दिया था .. हमेशा से गुंडो को समाज में उत्‍पात मचाने का एक बहाना चाहिए होता है धर्म एक बहाना बन गया होगा .. जब सामाजिक राजनीतिक स्थिति के कमजोर पडने से पति के मरने के बाद पत्‍नी को राजाओं या उनके आदमियों द्वारा उठाकर ले जाया जाता हो .. तो जीवनभर झेलने से एक बार मर जाना क्‍या बुरा रहा होगा .. जिस व्‍यक्ति के संतान न होने से मजबूत लोग उसकी संपत्ति को अपने में में मिला लेते हो .. उसका संतान के लिए दूसरा या चौथा विवाह करना क्‍या नाजायज होता होगा .. धर्म की छिछली जानकारी रखनेवालों के लिए ही धर्म खराब हो जाता है .. पर मसेहनजोदडो और हडप्‍पा की खुदाई में हम सारी व्‍यवस्‍था को पाते हैं .. ये सब व्‍यवस्‍था धर्म के क्षरा ही संभव है .. बस धर्म के नाम पर कमा रहे बेईमान लोगों को अलग करना होगा ।

 

लवली कुमारी /  जी ने कहा .

संगीता जी मैंने कभी ऐसा नही कहा की विज्ञान सिर्फ आज ही है(पर हर बार कार्य पहले होता है व्याख्या बाद में ) ...बल्कि सच यही है प्राचीन विज्ञान की दुर्दशा होनी आरम्भ हुई जब चंद मुठ्ठी भर लोगों ने पुरे समाज पर कब्ज़ा कर लिया.
उससे पहले हमारा प्राचीन ज्ञान इतना समृद्ध था की ६ - ७ वीं सदी में ब्रह्मगुप्त जैसे गणितज्ञों ने पृथ्वी की परिधि की गणना लगभग सही ही बताई थी.मुझे भारतीय ज्ञान पर कोई संदेह नही कृपया यह भ्रम आप मन से निकल दे.
पर एक साख्य दर्शन भी हुआ करता था हिन्दू धर्म में उसे ब्राह्मणों ने किस कारण अछूत कर रखा है उसका कारण आप बताएंगी ? क्या सिर्फ इसलिए की वह निरीश्वर वादी दर्शन था..?
मैं भारत के ज्ञान और परम्परा की इज्जत करती हूँ, इसलिए नही की मैं भारतीय हूँ इसलिए की हम
किसी वक्त समकालीन सभ्यताओं से बहुत आगे थे...पर ऐसे किसी विषय का कोई महत्व नही समझती जो खुद को ही स्पस्ट न कर सके.
स्वर्ग- नरक के नाम पर सिर्फ अग्यानिओं को डराया जा सकता है ऐसा नही होता तब बाबाओं के मठ से अरबों की संपतियां और अवैध संबंधों की लम्बी लम्बी कहानियां बाहर नही आती. न ही वह संतोष होता जिसके आधार पर साधारण आदमी का खून चूसकर भी ईश्वर पर भरोसाकरने की सलाह दी जाती है.

 

लवली कुमारी / जी ने कहा

और हाँ हड्डपा और मोहेंजोदड़ो के लोग प्रकृति और प्रजनन शक्ति के पूजक थे(वहां से प्राप्त मुहरों के अनुसार ). आज मनुष्य जीवित है तो सिर्फ इसलिए की उसने प्रकृति के विरुद्ध जाकर खुद के स्थान ढूंढा प्रकृति दुरह है और उसे साधने का नाम ही विज्ञान है. हम जीवित है क्योंकि हमने प्रकृति से लड़ना सिखा. अगर की परिवार जैसी व्यवस्था न होती (ध्यान दीजिएगा की भाई -बहन जैसा कोई रिश्ता प्रकृति में नही होता ) हम अतः प्रजनन कर के कब के मर खप गए होते. यह पुर्णतः मानव निर्मित व्यवस्था है जिसमे हम जी रहे हैं और इसके चलने और इसके नियमो के संसोधन के लिए हमे किसी दैवीय शक्ति की जरुरत नही है.

 

संगीता पुरी जी ने कहा

ब्‍लॉगिंग की दुनिया से जुडने के बाद ज्‍योतिष या धर्म के क्षेत्र में शायद पहली बार स्‍वस्‍थ मानसिकता से बहस के लिए आप तैयार हुई हैं .. अभी तक मुझे या तो बाहबाही मिली या फिर आलोचना .. पर विज्ञान सिर्फ आज ही है(पर हर बार कार्य पहले होता है व्याख्या बाद में )
आपकी ये बात समझ में नहीं आयी ... पर
किसी एक युग में किसी एक घटना से किसी धर्म को खराब नहीं माना जा सकता है .. आज भी साहित्‍य , ज्‍योतिष , राजनीति या अन्‍य क्षेत्र में शीषर्स्‍थ स्‍थानों पर बैठे लोग नए लोगों या विचारों को महत्‍व नहीं देना चाहते .. अधिक लोग जिस विचारधारा को मानते हैं .. उस युग में उसी की जीत होती है .. पी एन ओक पूरे जीवन इतने रिसर्च किए .. पर वे सही थे या गलत .. इसकी जांच भी हुई .. अधिक इतिहासकार जो कह रहे हैं .. वही सही होगा .. ये तो आज के युग की की बात है .. उतने पुराने एक उदाहरण में आप क्‍यूं जाती हैं ??

 

लवली कुमारी / जी ने कहा

बात पुराणी चीजो की आपने आरम्भ की इसलिए मैंने वहां का परिप्रेक्ष्य दिया..और 'survival of the fittest' की अवधारणा विज्ञान "के लिए" प्रतिपादित नही है बल्कि प्रकृति के चयन को देखकर सामने आई है.
(पर हर बार कार्य पहले होता है व्याख्या बाद में ) - इसका अर्थ यह है की पहिए की खोज पहले हुई गति का नियम बाद में आया, पर उसका सत्यापन तो हुआ न. कृपया व्यवस्था गत खामिओं के लिए वैज्ञानिको को दोष न दें ..अगर हमने उनके खोजों का गलत उपयोग किया है जिम्मेवार हम है विज्ञान नही.

 

संगीता पुरी जी ने कहा

पुर्णतः मानव निर्मित व्यवस्था है जिसमे हम जी रहे हैं
बिल्‍कुल सहमत हूं आपसे .. इसमें संशोधन के लिए दैवीय शक्ति की आवश्‍यकता भी नहीं है .. इससे भी सहमत हूं .. पर प्रकृति के विरूद्ध कहां जा पाएंगी आप .. आपको बुद्धि प्रकृति ने ही दी है .. जब तक प्रकृति का साथ मिलता है .. लोगों को उसका महत्‍व समझ में नहीं आता .. जिस प्रकार पैसेवाले घर में जन्‍म लेनेवाले लोग पैसों को महत्‍व नहीं देते .. पर जैसे ही प्रकृति का साथ नहीं मिलता है .. उसके महत्‍व को स्‍वीकारते हैं .. मैने अपने जीवन में कितनो को देखा है ऐसा करते .. क्‍या गलती थी रूचिका गिरहोत्रा की .. या अभी भी उससे भी बदतर जीवन जी रही हजारो हजार लडकियों की .. क्‍या आप दावा कर सकती है कि पूरे नौ महीने डॉक्‍टर के देख रेख में रहने के बाद भी बालक असामान्‍य शारीरिक बनावट लेकर नहीं आ सकता है .. इस दौरान सोनोग्राफी की छूट नहीं दी जाए तो !!

 

लवली कुमारी / जी ने कहा

और मैंने कभी किसी चीज के प्रति अस्वस्थ्य मानसिकता नही रखी..पर लोग चर्चा करना कहाँ चाहते हैं? आगे जो लोग आएँगे या की आपकी वाहवाही और मेरी आलोचना करेंगे या फिर मेरी वाहवाही और आपकी आलोचना. खुद कुछ कहेंगे नही बातों का रुख मोड़ने की कोशिश कि जाएगी. ऐसे माहौल में मैं सिर्फ आपके कारण ही चर्चा के लिए तैयार हुई हूँ इसमें आपको कोई संदेह नही होना चाहिए.

 

संगीता पुरी जी ने कहा

'survival of the fittest' प्रकृति का नियम नहीं है .. यदि वह प्रकृति का नियम होता तो सब जीवो का विनाश युगों पूर्व हो गया होता .. एक एक जीव को उसकी रक्षा के लिए प्रकृति से खास खास शारीरिक विशेषताएं न दी गयी होती .. आज जो प्रजातियां दुनिया से विलुप्‍त हो रही हैं .. वे मानवीय हरकतों की वजह से !!

 

लवली कुमारी / जी ने कहा

आपको बुद्धि प्रकृति ने ही दी है- मोहतरमा, इसमे जरा अंर्तविरोध है मनुष्य को प्रकृति ने बुद्धि दी की प्रकृति प्रदत्त डरों और और जीने के लिए कभी न मरने वाली इच्छा और अंत तक संघर्ष करने की हिम्मत ही ऐसी ही चीजों थी जिसने मनुष्य में चेतना अथवा बुद्धि भरी. वे जंतु जो सामाजिक नही है जिनमे कोई समष्टि भावना नही है उनमे चेतना नही होती उदहारण के लिए आप पशु पक्षिओं को लें. चेतना मानव के सामाजिक होने का वरदान (कहा जाय तो बाई प्रोडक्ट)है.जो किसी प्रकृति प्रेरणा से नही वरन उसके डरों से अकेले न लड़ पाने के कारण अपने जैसे और सजीवों(human being) से मिलकर मुकाबला करने की प्रवृति(या जरुरत ) के कारण उपजा है.
और विनाश तो हुआ है संगीता जी विशालकाय हांथी मैमथ का डाइनासोर्स का ..मानव का भी होगा इसमें कोई संदेह नही है...अगर की मानव अपनी संख्या अंधाधुंध तरीके से बढ़ता रहा जितने की साधन उपलब्ध नही है..यह न भी हुआ तब भी अगर लोग संप्रदाय, जाति और रंगभेद जैसी कुरीतिओं से बचे रह गए तब सूरज और हमारे सौर परिवार की भी आयु निश्चित है...और हम तब तक बैठ कर सिफ मौत का इन्तिज़ार कर सकते हैं.
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जिस प्रकार पैसेवाले घर में जन्‍म लेनेवाले लोग पैसों को महत्‍व नहीं देते .. पर जैसे ही प्रकृति का साथ नहीं मिलता है- आपकी जानकारी के लिए मैं ने कई साल पार्श्व नाथ के बीहड़ में आदिवशिओन के लिए काम किया हैं बड़ी भी वहीँ हुई हूँ .

 

संगीता पुरी जी ने कहा

देखिए लवली जी .. जहां तक विज्ञान की बात है .. हम दोनों एक मत है .. यदि मैं विज्ञान का थोडा विरोध करती हूं तो इस बात से कि विज्ञान को अपने विकास का एक कदम बढाने से पहले उसके भविष्‍य में होनेवाले प्रभाव को सोंच लेना चाहिए , जिसे वह नहीं करता .. पर धर्म और ज्‍योतिष के मामलों में हमारे मध्‍य इतनी मतभिन्‍नता है कि एक बैठकी में तो स्‍पष्‍ट होने से रही .. इसलिए मैं यह कह दूं कि एक ही माता पिता के दो संतान भिन्‍न भिन्‍न बुद्धि के होने का कारण भी प्रकृति का ही नियम है .. तो आप नहीं मानेंगी .. आपका कहना है कि मनुष्‍य ने अपनी बुद्धि स्‍वयं विकसित की है .. यह कहना वैसे ही हास्‍यास्‍पद है जैसा कि सर्प कहे कि विष मैने अपने शरीर में खुद भरा .. पक्षी कहे कि मैने उडना स्‍वयं सीखा !!

 

लवली कुमारी / जी ने कहा

पुनः कहूँगी - चेतना मानव के सामाजिक होने का वरदान (कहा जाय तो बाई प्रोडक्ट) है
संगीता जी, पक्षी और सर्प का उड़ना और डसना जैविक गुण है जैसे मनुष्य का खाना -पीना और चलना...चेतना अथवा बुद्धि कोई जैविक गुण नही है. वह सामाजिक गुण है. पक्षिओं को हमारी तरह अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित नही होना पड़ता है. मैं भी प्रकृति विरोधी नही हूँ पर प्रकृति के नाम पर रहस्य बनाये रखने की विरोधी हूँ.
उस व्यवस्था का विरोध करें जिसने मानव के नवीनतम ज्ञान से कोशों दूर सड़ी और गंधाती हुई शिक्षा पद्धति का निर्माण किया है इस का आरोप विज्ञान पर न लगावें (जो उसने किया ही नही)...और मुझे कोई शक नही की यह सब सिर्फ अधिसंख्यक निर्धन मनुष्यों को प्रताड़ित करने के लिए किया गया सुनियोजित उपक्रम है.
अंततः "तमसो माँ ज्योतिर्गमय " यही मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए.
सार्थक चर्चा का धन्यवाद.

 

संगीता पुरी जी ने कहा

आपको भी बहुत बहुत धन्‍यवाद लवली जी .. मेरे चिंतन के लिए आपने कई और नए विंदु दिए !!

10 टिप्पणियाँ:

संगीता पुरी ने कहा…

आपका आभार .. जिस चिट्ठे पर ये बहस हुई .. उसका लिंक भी बना दें .. तो पाठकों को समझने में सुविधा होगी !!

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

वास्तव में सार्थक और सकारात्मक चिंतन .....जहाँ दोनों पक्ष अपने विचारो के प्रति पूर्वाग्रह छोड़ कर नए चिंतन को अपनाने ना सही पर उस पर विचार करने को तैयार दीखते हैं |

@राहुल प्रताप सिंह राठौड़,
एक निवेदन संगीता जी के चिट्ठे का लिंक यहाँ दे देना चाहिए ..जिससे नए पाठक वहां जा-कर मनन और चिंतन कर सकें !!

Udan Tashtari ने कहा…

ऐसे ही चिन्तन और विमर्श होने चाहिये-एकदम स्वस्थ एवं टू द पाइंट.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बह्स अच्छी लगी।आभार।
संगीता जी के ब्लोग का लिंक यहां दे रहा हूं ....

http://gatyatmakchintan.blogspot.com/2009/12/blog-post_27.html

Rahul Rathore ने कहा…

Thanks

L.Goswami ने कहा…

मैं आपका आभार प्रकट करती हूँ की आपने इस विमर्श को यहाँ उपलब्ध करवाने का कार्य किया है. इस कार्य के लिए मैं संगीता जी की भी आभारी हूँ जिनसे मुझे प्रतिपक्षी की तरह पूरा सम्मान और सहयोग मिला..आशा है इससे और लोग भी ऐसी चर्चाओं के लिए प्रस्तुत हो सकेंगे.
धन्यवाद
लवली

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

ये बहस कहाँ? उस का आरंभ भर है। आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी।

MUMBAI TIGER मुम्बई टाईगर ने कहा…

लवलीजी एवम सन्गीताजी के विमर्श को पढ अच्छा लगा।

Arvind Mishra ने कहा…

साधुवाद अनुज, लीलावती -गार्गी संवाद को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए ! मैं अभागा चूक गया वहां जाने से !

Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…

बड़ी जोरदार बहस हुई...गदगद हो गया मन...!

 

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