शनिवार, 20 मार्च 2010

एक “टिप्पणी” जो किसी “पोस्ट” से कम नहीं थी

अभी हिंदी ब्लॉग जगत में “अश्लील विज्ञापनों के खिलाफ” एक जोरदार बहस चल रही है, शुरुआत अनिल पुसदकर ने की और उस कई प्रतिक्रियाएं आयीं, जिन्हें मैंने अपनी पिछली पोस्ट में संकलित किया, उसके बाद ये ही चर्चा कई और ब्लोगों पर देखी गयी |

विषय सही है, बहस सार्थक चल रही है, जहाँ तक मेरी बात है तो  इस “अश्लीलता” का मैं सिरे से विरोध करता हूँ |आखिर हम इन चीजों से हम क्या साबित करना चाहते है|

इन्हीं सारी पोस्टों, टिप्पणियों के बीच एक ऐसी टिप्पणी मिली जो किसी पोस्ट से कम नहीं लगी, अतः आप भी इसको पढ़िए | 

“रचना जी, विज्ञापनों का जो मुद्दा उठाया गया है वह अपनी जगह ठीक है। वहाँ विचित्र व आपत्तिजनक विज्ञापनों की बात हो रही थी।
समस्या रवैये या कहिए attitude की है। इसका कोई सरल उपाय नहीं है। यह रवैया ही टिप्पणियों में चाहे अनचाहे झलकने लगता है। यह सदियों के अनुकूलन/ conditioning का परिणाम है। स्त्रियों का यहाँ, वहाँ, हर ब्लॉग पर भ्रमण करना कुछ व्यक्तियों के अवचेतन मन पर वही प्रभाव छोड़ता है (प्रहार करता है ) जो एक दो पीढ़ी पहले स्त्रियों को अड़ोस पड़ोस में जाकर बैठने, बतियाने, या मेला देखने, घूमने जाने पर होता था। लगता था कि ये खाली (पंजाबी में वेल्ली जनानी ) औरत समय बरबाद कर रही है। यह फालतू, घटिया औरत है। स्त्री से हर समय स्वयं को काम में व्यस्त रखने की अपेक्षा की जाती थी। यदि सब काम खत्म हो जाएँ तो सिलाई, कढ़ाई, बुनाई तो कर ही सकती थी,(मैं भी करती रही हूँ।) किसी का सिर या पैर दबा सकती थी।
लोग कहना तो शायद सही ही चाहते हैं किन्तु आदत ही ऐसी पड़ गई है कि यदि स्त्री की बात करनी है तो कुछ छोटा दिखाने वाले ( derogatory) शब्द या भाषा, या फिर सीख देने वाली भाषा अनचाहे ही अपने आप कूदकर चली आती है। मायावती, सोनिया,ममता व अपने कार्यक्षेत्रों में जब अधिक से अधिक सामना स्त्री बॉसेज़ से होने लगेगा तो यह सब अपने आप ही छूटता जाएगा। यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे छोटे बच्चे से बात करते समय बहुत से लोग तुतलाने वाली भाषा की मोड में आ जाते हैं, बच्चे के गाल नोचने लगते हैं आदि। हम हर समय चैतन्य नहीं रहते हैं, प्रायः स्वचालित/ औटो पायलेट वाली मोड में जीते हैं और यह उनकी स्वाभाविक यन्त्रवत प्रतिक्रिया होती है।
जहाँ तक 'स्त्रियाँ कहाँ हैं, क्यों नहीं बोल रहीं' का उत्तर है तो क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप समाचारपत्र पूरा का पूरा बिना एक स्त्री के रूप में आहत हुए पढ़ लें? या फिर ढेर सारे ब्लॉग बिना आहत हुए पढ़ लें? हाँ, हमें आपत्ति करनी चाहिए किन्तु कब तक और किस किस की? हम करते हैं, परन्तु बीच बीच में चुप भी हो जाती हैं। कश्मीर में स्त्रियों की नागरिकता को लेकर, महाराष्ट्र में बच्चों के अधिवास को लेकर जहाँ डोमिसाइल उस ही को मिलेगा जिसका पिता महाराष्ट्र में पैदा हुआ हो,या न्यायाधीष जब कहें कि पीड़िता को अपने बलात्कारी से विवाह करने का अधिकार होना चाहिए? हाँ, अवश्य होना चाहिए। किन्तु तब जब वह अपनी सजा भी पूरी कर ले। घर, बाहर, सड़क, दफ्तर, कॉलेज कौन सा स्थान ऐसा है जहाँ हमें इस रवैये का सामना नहीं करना पड़ता? यदि सड़क पर पुरुष सीटी बजाता है,बुरा व्यवहार करता है तो हमें कपड़ों पर उपदेश मिल जाते हैं। यदि स्त्री का बलात्कार होता है तब भी। यदि घर पर स्त्री का उत्पीड़न होता है तो या तो यह कहा जाता है कि तुमने ही पति को मारने को उकसाया होगा या यदि सास द्वारा उत्पीड़न हो तो यह सुनने को मिलता है कि 'स्त्री ही स्त्री की शत्रु है।'
तो जब आप रैगिंग का विरोध करते हैं तो क्या हम च च च कहने की बजाए यह कहती हैं कि 'पुरुष ही पुरुष का शत्रु है?' या फिर जब आप कहते हैं कि नगर में अपराध बढ़ गया है, हत्याएँ हो रही हैं, खुले आम घूस माँगी जा रही है या फिर जब कहीं पुरुषों पर लाठी चार्ज होता है तो क्या वही ब्रह्म वाक्य 'पुरुष ही पुरुष का शत्रु है' कह देते हैं? या फिर यदि पति दफ्तर से परेशान सताया हुआ,पुरुष बॉस की झाड़ खाकर आता है तो गरम चाय देने या उसके घावों पर मरहम लगाने की बजाए यह कह देती हैं कि 'पुरुष ही पुरुष का शत्रु है।'
स्त्री दफ्तर से आती है तो आते से ही उसे रसोई में घुसना चाहिए, पति, ससुर सास को चाय देकर भोजन बनाना चाहिए। क्योंकि वह नौकरी करके किसी पर उपकार नहीं कर रही। बड़ी अफसर होगी तो दफ्तर में। किन्तु जब पति उस ही दफ्तर से उस ही पद से काम करके आता है तो वह थका होता है, उससे उलझना नहीं चाहिए, उसे एक मुस्कान के साथ चाय देनी चाहिए। फिर निर्बाध टी वी देखने देना चाहिए।
समाज को बदलने में समय लगेगा। यदि बदलाव में उन्हें अपना लाभ दिखेगा तो जल्दी बदलेंगे यदि हानि तो देर लगाएँगे। खैर बदलना तो पड़ेगा ही। हमें क्रोध आना स्वाभाविक है किन्तु साथ साथ इस समाज की मानसिकता को भी समझना ही होगा। यह समझना होगा कि वे हम पर आक्रमण नहीं कर रहे,हमारे प्रति उनकी भाषा ही ऐसी है,लहजा ही ऐसा है। यदि स्त्री शक्तिशाली बनें,ऊँचे पदों पर बैठें तो देखिए लहजा, भाषा सब बदल जाएँगे, कम से कम स्त्री के सामने तो।
घुघूती बासूती”

गुरुवार, 18 मार्च 2010

हिंदी ब्लॉग जगत पर कल पढने को मिलीं कुछ सार्थक टिप्पणियाँ


कल रोज की तरह हिंदी ब्लॉग जगत में विचरण कर रहा था, तो एक बेहद बढ़िया एवं सार्थक पोस्ट पढ़ने को मिली | पोस्ट तो सार्थक थी ही साथ ही टिप्पणियाँ भी उतनी ही सार्थक | मैं यहाँ कुछ टिप्पणियाँ फिर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, अगर आप इससे छूट गए हो तो यहाँ पढ़ लें|
मूल पोस्ट का कुछ अंश यहाँ है….पूरी पोस्ट लेखक के ब्लॉग पर जाकर पढ़ लीजियेगा |
लड़कियां मोबाईल का प्लान नही है टाटा सेठ जो चाहे रोज़ बदल लो!
लड़किया क्या होती है?प्रेमिका,दोस्त या रोज़ बदलने वाली कोई कोई खूबसूरत चीज़?सच मानें तो इस देश मे महिलाओं को जो स्थान दिया गया था पता नही क्यों वो अब षड़यंत्रपूर्वक छीना जा रहा है?क्या आप एक प्रमिका को एक सेकेण्ड मे दोस्त मे बदल सकते हैं?क्या आप अपनी प्रेमिका को दोस्त मेबदल कर उसे छोड़ दूसरी लड़की के साथ जा सकते हैं?नही ना?मगर आजकल ऐसा ही होता है,ये मैं नही कह रहा बल्की एक जानी मानी मोबाईल कंपनी का विज्ञापन कह रहा है?देखा है ना आपने टीवी पर वो विज्ञापन?नही?अरे कैसी बात कह रहें है? टीवी पर आजकल एक मोबाईल कम्पनी का विज्ञापन खूब दिखाया जा रहा है।इस विज्ञापन में एक जोड़ा रेस्त्रां मे बैठा रहता है और अचानक़ लड़का प्रेम पर सवाल खड़ा करता है जिस पर लड़की भी सहमती जताती देती है और लड़का लड़की से कहता है कि आज से वे दोस्त हैं और लड़का ऊठ कर दूर बैठी उसे देख कर मुस्कुरा रही एक बेहद उत्तेजक़ और जिस्म ऊघाड़ू कपड़ों मे बैठी लड़की की ओर चला जाता है।वो लड़की उसे देख कर मुस्कुराती है और दोनो उठ कर चल देते हैं तभी लड़का अपनी पुरानी प्रेमिका की ओर देखता है तो उससे एक दूसरे युवक को मनुहार करते देखता है।एक पल के लिये चौंकने के बाद वो मुस्कुराता है और नई लड़की के साथ निकल लेता है और उसके बाद मोबाईल कंपनी का डेली प्लान का विज्ञापन शुरू हो जाता है……..पूरा पढ़े
रचना जी ने कहा …
आप ने जब भी लिखा हैं मेरा सहमति का कमेन्ट वहा जरुर होगा और टी वी देखने के लिये भी समय चाहिये होता हैं जो आज कल कम ही मिलता हैं बाकी मैने सुना हैं charity begins at home . ब्लॉग जगत मे महिला ब्लॉगर के प्रति शब्दों के चुनाव पर आप कभी जरुर लिखे वैसे मै तो लिखती ही रहती हूँ !!और आगे भी पुरजोर कोशिश रहेगी कि जहां तक हो सके अपने आस पास से जितनी अपमान जनक भाषा का प्रयोग होता हैं जो कि एक प्रकार का जेंडर बायस हैं उसको सामने ला सकूँ क्युकी taken for granted हैं कुछ बाते जिनको सामने लाना जरुरी हैं । आप विज्ञापन से लाये , मै ब्लॉग / कमेन्ट से लायूं शायद बदलाव कि शुरुवात हो
सादर
आराधना चतुर्वेदी  जी ने कहा ….
बाज़ार में औरतों को आज से नहीं, बहुत पहले से शो पीस की तरह पेश किया जाता है. यह विज्ञापन मुझे भी बहुत अटपटा लगा था. लेकिन यह सिर्फ़ औरतों के विरुद्ध नहीं है क्योंकि इसमें लड़का-लड़की दोनों अपने-अपने पार्टनर्स बदल लेते हैं. यह आज की नयी पीढ़ी को सम्बोधित है, जो पहले से ही प्रेम जैसी चीज़ों को तुच्छ समझती है और जिसे इस तरह के विज्ञापन यह आश्वस्ति दिलाते हैं कि तुम कुछ गलत नहीं कर रहे हो, ऐसा तो होता ही है, यह तो आज का लाइफ़ स्टाइल है. तेजी से गर्ल फ़्रैंड या ब्वॉय फ़्रैंड बदलना एक स्टेटस सिम्बल बन गया है.
ये तो हुयी एक बात. लेकिन जिस दूसरी बात पर रचना जी ने आपत्ति की है, वह है ब्लॉगजगत की कुछ औरतों के लिये एक टिप्पणी में यह कथन " ओर ब्लांग कि कुछ खास नारिया जो अपने आप को ब्लांग की ओर नारियो की ठेके दार समझती है वो क्यो नही ऎसे मामलो पर बोलती?? जो सभी ब्लांग पर थाने दारो की तरह घुमती फ़िरती है..." यह कथन किसी भी महिला को सम्बोधित हो, पर ऐसी भाषा का प्रयोग कतई उचित नहीं है.
नारी ब्लॉग, टीवी सीरियल्स और विज्ञापनों में नारी-चित्रण जैसे मुद्दों को समय-समय पर उठाता रहा है. इसके अतिरिक्त इस ब्लॉग का प्रयास रहता है कि ब्लॉगजगत में महिलाओं के प्रति अनुचित भाषा के प्रयोग, आपत्तिजनक लेखों, अभद्र टिप्पणियों और बाज़ार की तरह नारी के शो-पीस की तरह प्रयोग का विरोध करे. नारी ब्लॉग इस समय औरतों का सबसे बड़ा कम्युनिटी ब्लॉग है. इसलिये जब यह कहा जाता है "ब्लॉग जगत की कुछ नारियाँ" तो यह आक्षेप हम पर भी किया जाता है. नारी कोई भी हो, किसी भी जाति, वर्ण, धर्म की हो, उसके विरुद्ध यदि ऐसी भाषा का प्रयोग होगा तो हम इसका विरोध करेंगे.
रंजना सिंह जी ने कहा …
यह विज्ञापन देखा तो नहीं है,पर समझ सकती हूँ की कैसे दिखाया जा रहा होगा...
क्या कहूँ,खून खौल जाता है ऐसे विज्ञापनों को देखा कर ... पर सिवाय इसके बहुत अधिक कुछ कर पाना हमारे हाथ में भी तो नहीं....
जिनके हाथ में कुछ करने का सामर्थ्य है,वे तो कब के अपने आँखों पर नोटों की पट्टी और कानों में तेल डाले बैठे हैं...उन्हें क्या फर्क पड़ता है कि देश की संस्कृति को ये विज्ञापन,टी वी कार्यक्रम कैसे प्रतिपल बलत्कृत करते रहते हैं...
किसे कहें...स्त्रियों की नग्नता के साथ चिपका कर अपने उत्पाद को येन केन प्रकारेण बाज़ार में खपाने वाले उद्योगपतियों को....पैसा ले इन्हें प्रचारित करने वाले संचार माध्यमों को....या फिर अपने को वस्तु बना परोसती इन अर्थलोलुप बालाओं को....

डॉ महेश सिन्हा जी ने कहा …
पहली बात तो बधाई इसपर लिखने के लिए कल रात ही इसपर लिखने की सोच रहा था :) .
अब दूसरी बात पर की क्या सही और गलत तो ज्यादातर लोग इसका विरोध करेंगे लेकिन थोड़ा आसपास नजर घुमाएँ तो तस्वीर कुछ धुंधली ही दिखाई देती है .
आज महानगरों और छोटे शहरों में कोई ज्यादा अन्तर नहीं रह गया है . live in relationship( बिना विवाह दो विपरीत लिंग के लोगों का एक घर में रहना ) इस देश में भी अपनी धमक दे चुका है .
व्यापारवाद जिसे हमने आँखें बंद करके पश्चिम से अपनाया है तो और क्या उम्मीद की जा सकती है.
एक पुराना गीत याद आ गया : रिश्ते नाते प्यार वफा सब वादे हैं वादों का क्या ........
राज भाटिय़ा जी ने कहा…..
ऎसे विज्ञापन पर लोग कयो नही एतराज करते, ओर ब्लांग कि कुछ खास नारिया जो अपने आप को ब्लांग की ओर नारियो की ठेके दार समझती है वो क्यो नही ऎसे मामलो पर बोलती?? जो सभी ब्लांग पर थाने दारो की तरह घुमती फ़िरती है.... अगर हम सब इन बातो का बिरोध करे तो किसी की हिम्मत नही हो सकती ऎसे विज्ञापन दिखाने की.
आप ने इस ओर ध्यान दिलाया, आप का बहुत बहुत धन्यवाद
भावेश जी ने कहा…..
अनिल जी बस इतना ही कहूँगा की आज के परिवेश में हमारे देश में नोट और वोट के लिए देश में कोई भी कही भी किसी भी स्तर तक गिर सकता है. अच्छा और बुरा कौन देखता है. ये भोंडा विज्ञापन भी ग्राहक को आकर्षित कर कमाई करने का खेल है.

मेरे पोस्ट लिखने के बाद कुछ और टिप्पणियाँ और आई है, मैं उनको भी यहाँ समेट रहा हूँ :
रचना जी ने कहा …
बिना पोस्ट पढे और बिना कमेन्ट को पढ़े और समझे आप अगर कमेन्ट करते हैं तो पोस्ट लेखक और कमेन्ट करने वाले दोनों के साथ और खुद अपने साथ अन्याय ही करते हैं । जबरदस्ती कमेन्ट देना क्या जरुरी हैं । जो बात राज भाटिया ने कही हैं और मैने और मुक्ति ने प्रतिकार किया हैं आप उस कथन को मेरा बयान कह रहे हैं । हिंदी ब्लॉगर कितना पढते हैं और कितना उनका पूर्वाग्रह हैं इसी से पता चलता हैं ।इस गलत ब्यान बाज़ी को आप क्या कहेगे जो आप कर रहे हैं और जो प्रश्न आप मुझसे पूछ रहे हैं अपने परम मित्र श्री राज भाटिया से पूछ कर पोद्सत बनाए । हद्द हैं और अनिल जी ऐसे कमेन्ट आप एप्रोवे भी कर रहे हैं ???


रेखा श्रीवास्तव जी ने कहा....

विज्ञापन में चाहे वो सेविंग करें का हो उसमें लड़की जरूर दिखाई देगी, जैसे की हर चीज उससे ही जुड़ी है. ये हैं व्यापार के तौर तरीके. इस तरह के विज्ञापन निंदनीय हैं, वैसे मैंने देखा नहीं है क्योंकि मैं TV पर जाने का समय कमही निकाल पाती हूँ.


@ राज भाटिया जी,

वैसे इस समाज के थानेदार तो अभी तक मर्द ही होते आ रहे हैं? अब गर आप हम सब को भी उसी श्रेणी में रख रहे हैं तो नाम भी उजागर कर दें तो ये तथाकथित थानेदार अपनी ड्यूटी तो संभाल लें. रहा सवाल ब्लॉग पर जाने का तो सभी एक दूसरे के ब्लॉग पर जाते हैं. मैं इसका अपवाद हूँ. अगर बहुत अच्छी चीज ब्लोग्वानी या चिट्ठाजगत पर नजर आ जाती है तभी उधर का रुख करती हूँ अन्यथा समय का आभाव है. अब जब ये ब्लॉग नजर आ गया तो चली गयी.

अनिल जी, जैसे हम विज्ञापन में इस तरह के प्रदर्शन के प्रति विरोध प्रकट करते हैं , वैसे ही कमेन्ट पर भी जो आप अपने लिए स्वीकार न करें उसको कमेन्ट में भी स्वीकार न करें.जिसमें कि किसी को भी आक्षेपित किया गया हो. वह हम भी हो सकते हैं और आप भी.

डॉ महेश सिन्हा जी ने कहा ....
" हिंदी ब्लॉगर कितना पढते हैं और कितना उनका पूर्वाग्रह हैं इसी से पता चलता हैं "

यह तो सारे हिन्दी ब्लागरों और हिन्दी की तौहीन है . हिन्दी से इतना गुरेज है तो लोग यहाँ क्या कर रहे हैं

प्रशांत प्रियदर्शनी जी ने कहा .....

मेरी समझ थोड़ी कम है मगर फिर भी मुझे जो समझ में आया वह जरूर कहना चाहूँगा.. इस एड में महिला को लेकर कहीं भी बात नहीं कही जा रही है और ना ही महिलाओं को बाजार में बैठा दिखाया जा रहा है.. इस एड में जो लड़के कर रहे हैं वही लड़कियां भी कर रही हैं.. एक तरह का सांस्कृतिक हमला कह सकते हैं इसे..


वैसे मैंने आम जिंदगी में भी ऐसा कुछ देखा है(कालेज जीवन में), जहाँ लड़के-लड़कियों को हर हफ्ते ब्वाय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड बदलने का शौक था, और लड़के-लड़कियां भी मन में बिना किसी ग्रंथी को पाले इसे आराम से स्वीकार करते रहे थे..

मैं यह सब बात इन बातों के समर्थन में नहीं कर रहा हूँ, इस सांस्कृतिक हमले के विरोध में मैं भी हूँ.. मगर यह भी जरूर कहूँगा कि चाहे एक पीढ़ी पहले के लोग कितना भी विरोध जताए, मगर बीता समय वापस नहीं लाया जा सकता है.. समय का पहिया कभी पीछे कि तरफ नहीं घूमता है.. एम टीवी कल्चर का एक और प्रभाव है यह..

वैसे इसी विषय पर एक और पोस्ट लिखी गयी है :
अनिल पुसदकर जी के नाम पाती किन्तु इससे उनका कोई लेना देना नहीं जो........व्यक्तिगत विचारों को सर्वोपरि मानते हैं......?

गुरुवार, 4 मार्च 2010

कल मैं गांव से लौटा हूँ ..सोचा कुछ हाल-चाल बता दूं आपको

मैं कल अपने गांव से लौटकर आया हूँ , सोचा कुछ शेयर किया जाये आप लोगों के साथ | पहले तो बता दूं कि अबकी बार "होली" बहुत ही जबरदस्त रही , आशा है आपकी भी रही होगी |

गांव गया था, वैसे तो मैं हर ४ या ५ महीने बाद जाता रहता हूँ |अबकी बार कुछ ज्यादा ही परिवर्तन दिखायी दिए | जिस सड़क को पहले हम बचपन अवस्था में छोड़कर आये थे , वो अब लगता है "प्रोजेरिया" रोग से ग्रसित हो गयी, तभी तो उसने थोड़े ही दिनों में अपनी तीनों अवस्थाएं देख ली .....यानि अब जब मैं वापस गया तो वह सड़क अपनी आखिरी स्टेज में पहुँच चुकी है | हाँ वैसे उसे कहा "उच्च गुणवत्ता" का जा रहा था |

खैर आगे गेंहूँ के खेत तो लहरा रहे थे, "बाली" तो आ गयी है सबपर पर अभी "दाना" छोटा छोटा है | तम्बाकू, बंद-गोभी के खेत भी देखते ही बनते है | "जौ" के खेतों का क्या कहना |

हाँ एक परिवर्तन और दिखा जहाँ पहले "बिजली" महारानी दिन में मुश्किल से ६ या ७ घंटे रहती थी, अब वहाँ कम से कम १२ या १४ घंटे तो जरूर ही रहेंगी | बीच बीच में कट तो अभी भी काफी है , पर उनकी भरपाई भी वे जरूर करती है | हाँ लेकिन "शाम" को इनके दर्शन पहले की तरह अभी भी दूभर है |
गांव की सडकें, जो पहले ईंटों के "खंडंजा" हुआ करते थे, वे अब पूरी तरह से "कंक्रीट" की मोटी मोटी चादरों में तब्दील हो चुके है | कीचड़ मानों "विलुप्त" हो गया है |

हाँ मेरे गांव के दक्षिणी छोर पर एक विशाल भू-भाग पर एक "वन" हुआ करता था | मेरी धुंधली याद में वो काफी घना एवं हरा भरा था | पहले वो गांववालों के "कहर " से काफी घायल हो चूका था , फिर पिछली साल जब "वन विभाग" ने उसमे कुछ दिलचस्पी दिखायी तो लगा कि अब कुछ दिन सुधरेंगे | घेरा-बंदी हुई, पुरानी झाडियाँ, पेड़, काट दिए गए, नए भी लगाए गए | फिर "वन विभाग" उन नवजातों(पेड़) को भुलाकर चले गए, बाद में कभी उनकी सुध नहीं ली | अब हालात ये है कि हमारा वो "वन" अब वैसा भी नहीं रह गया | अब वहाँ हम "क्रिकेट" खेल सकते है | इससे से बेहतर मेरा पहले ही था |

और माहौल, भाईचारा, सब सही है | आगामी "पंचायत चुनावों" के लिए गणित  अभी से चालू हो गया है |  और सब बढ़िया है ......

ग्राम- खरसुलिया
जिला - एटा
उत्तर प्रदेश


 

जरा मेरी भी सुनिए Copyright © 2011 -- Template created by O Pregador -- Powered by Blogger