रविवार, 22 अगस्त 2010

दरिद्रता का अभिशापःस्वामी विवेकानंद

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भारतवर्ष की एक आशा उसका जन समुदाय है| 

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क्या आप अपने देशवासियों से प्रेम करते हैं ? आपको अपना भगवान खोजने के लिये कहाँ जाना पडता है ? क्या सभी गरीब,दुखी,शक्तिहीन भगवान नही है? क्यों न हम सबसे प्रथम उन्हीं की पूजा करें? नदी के किनारे एक कुंआ खोदने से हमें क्या लाभ ?

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अपनी दैवी शक्तियों के प्रदर्शन का एक मात्र साधन दुसरों को उनकी शक्तियों के प्रदर्शन मे सहायता देना है?

यदि हम प्रकृति में असमानता मान भी लें तब भी प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर मिलना चाहिये अथवा यदि कुछेक को अधिक अवसर हो कुछेक को काम, उस अवस्था में शक्तिहीन को शक्ति सम्पन्न से अधिक अवसर मिलने चाहिए|

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मैं उस भगवान में अथवा कर्म में विश्वास नहीं करता जिसमें एक अबला के अश्रु पोंछने की शक्ति न हो अथवा जो किसी अनाथ को एक रोटी का टुकडा न दे सके | हमारे सिद्धान्त कितने ही गौरवपूर्ण क्यों न हों, हमारा शाँख्य कितने ही कितने सुन्दर सूत्रों से क्यों न बंधा हो, हम उसे तब तक धर्म नहीं कह सकते जब तक कि वह पुस्तकों एवं निर्धारित सिद्धान्तों तक ही सीमित हो| आप को अपना भगवान खोजने कहां जाना है? क्या सभी गरीब,दुखी,शक्तिहीन भगवान नही हैं? क्यों न हम पहले उनकी पूजा करें |

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कल स्त्रियों के कारागार की स्त्री अधीक्षक यहाँ पर थीं| वे लोग इसे   कारागार  न कहकर मनुष्य सुधार का एक घर कहते हैं| वास्तव में मैंने अमरीका में यही एक बहुत सुन्दर वस्तु देखी| यहाँ के कारागार के निवासियों के साथ कितना सौहार्द पूर्ण व्यवहार किया जाता है,किस प्रकार से उन्हें सुधारा जाता है तथापि किस प्रकार वे समाज के लाभकारी सदस्य बनाकर समाज में वापस भेजे जाते हैं| कितना गौरव पूर्ण, कितना सुन्दर यह दृश्य होता है जिसे देखकर ही विश्वास होता है और तब मेरा ह्रदय भारतवर्ष के पतित तथा गरीब की कल्पना मात्र से किस प्रकार दुःखने लगता है| उन अभागों को न तो अवसर ही प्राप्त है न उससे छुटकारा ही और न अपने विकास के लिये कोई मार्ग ही | भारतवर्ष के विचारे गरीब,पतित तथा पापी पुरुषों के न तो कोई मित्र हैं और न उन्हें किसी का सहारा ही है| वे कितने ही प्रयत्न क्यों न करें उठ नहीं सकते| दिन प्रतिदिन वे नीचे गिरते ही जाते हैं| वे निर्मम समाज के कठोर आघातों की सतत वर्षा का अनुभव करते हैं और बेचारे यह नही जान पाते कि प्रहार किस ओर से पड रहा है| वे भूल जाते हैं कि वे भी मनुष्य हैं और जिसका फल यह होता है कि वे अपने को दासता की जंजीरों में बंधा पाते हैं|

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मैं उसी को महात्मा (महान् आत्मा वाला) समझता हूँ जिसका ह्रदय एक गरीब की आह से रो उठता है अन्यथा वह एक धूर्त आत्मा है| जब तक लाखों व्यक्ति भूख और अग्यान की अवस्था में रहते रहेंगे तब तक मैं प्रत्येक व्यक्ति को एक ऍसा देशद्रोही समझता रहूँगा जिसकी शिक्षा का भार पूरा देशवासियों पर रहा हो और जिसने लेशमात्र भी चिन्ता न की हो| ऍसे व्यक्तियों को मैं धूर्त आत्मा समझता हूँ जो कि बन ठन कर अपना मस्तक ऊँचा किए घूमतें हों परन्तु जिसने बेचारे गरीबों का रक्त चूसा हो| इनके प्रति मेरी यह धारणा तब तक बनी रहेगी जब तक की वे उन लाखों भूंखे,कंगाल तथा असहाय व्यक्तियों के उद्धार के लिए कार्य नहीं करते|

जारी……..

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